जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अध्याय 4 सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
आज, जब कि समानता का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया गया है और मत-वैभिन्य बुद्धिजीवियों का लक्षण बन गया है, पिछली शताब्दी के आठवें और नवें दशाब्द में समाज-सुधार से पैदा हुए जोश का अनुमान करना कठिन ही है। उस समय विभिन्न सुधारों के गुणों-अवगुणों के अलावा, विवाद इस प्रश्न को लेकर उठा था कि पहले सामाजिक सुधार किया जाए या राजनैतिक। अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भिक वर्षों में तिलक राजनैतिक सुधार के एक कट्टर समर्थक के रूप में इस विवाद में कूद पड़े।
हिन्दू समाज की त्रुटियों को दूर करने का काम पहले-पहल कुछ प्रबुद्ध अंग्रेज शासकों ने आरम्भ किया था। लॉर्ड विलियम बेन्टिक ने 1829 में सती-प्रथा का अन्त किया। 1856 में विधवा-विवाह संबंधी कानून बनाया गया। परन्तु अंग्रेजों का यह उत्साह राजनैतिक वांछनीयता के कारण मन्द पड़ गया और महारानी विक्टोरिया की 1658 की ऐतिहासिक उद्घोषणा, जिसमें उन्होंने धार्मिक विश्वासों और चलनों में हस्तक्षेप न करने का आदेश जारी किया था, रूढ़िवादियों की दृष्टि में एक अपरिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था का चार्टर थी।
किन्तु अंग्रेज़ी सरकार के विचारों में इस परिवर्तन के आने के पूर्व ही हिन्दू समाज पश्चिमी सभ्यता के सम्पर्क में आने से एक प्रबल उफान से आलोड़ित हो उठा था, जो राजा राममोहन राय के रूप में, जिन्हें भारतीय पुनरूत्थानवाद का जनक कहा जाता है, प्रकट हुआ। उनके ब्रह्म समाज का प्रभाव उस समय बंगाल तक ही सीमित था और उसे देश में अन्य भागों तक पहुंचने में कई वर्ष लगे। 1867 में बम्बई में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई और 1875 में आर्य समाज की। जहां ब्रह्म समाज केवल शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था, वहां आर्य-समाज ने साधारण जनता को भी भली भांति प्रभावित किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म के आधारभूत स्तम्भों को हिला दिया था और इसी कारण कभी-कभी वह 'भारतीय लूथर' के नाम से पुकारे जाते हैं।
महाराष्ट्र में 'प्रार्थना समाज' तो निष्प्रभाव ही रहा, किन्तु महात्मा जोतिबा फूले द्वारा 1878 में स्थापित 'सत्य-शोधक समाज' ने धीरे-धीरे ब्राह्मणवादी प्रभुत्व-विरोधी जन-आन्दोलन का रूप ग्रहण कर लिया। महाराष्ट्र में समाज-सुधार आन्दोलन इससे और पहले बालशास्त्री जाभकर ने पिछली सदी की तीसरी दशाब्दी में 'दर्पण' निकालकर चलाया था और उनके कार्य को श्री गोपाल हरि देशमुख ने पूरा करने का प्रयत्न किया था। श्री देशमुख इसी कारण 'लोकहितवादी' के नाम से जाने जाते थे।
जब देश में उन्नीसवीं शताब्दी में समाज-सुधार-भावना जोर पकड़ रही थी, तभी इसके कुछ अनाकर्षक पहलू भी देखने को मिले। इससे हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं परम्परओं के विषय में हीन भावना फैलने लगी। तिलक ने कहा था-हम लोगों का जब पश्चिमी सभ्यता से प्रथम परिचय हुआ, तब कुछ लोग इसके वैज्ञानिक स्वरूप और तौर तरीके को देखकर इस तरह चकाचौंध हो गए कि हमारी प्राचीन विद्या को बेकार समझने लगे और पश्चिम के विज्ञान की ओर दौड़ पड़े। ऐसे लोगों ने हमारे धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और यह जानने की तनिक भी चेष्टा न की कि मनुष्य और ईश्वर के सम्बन्ध पर हमारे धर्म का क्या मत है। इस विषय पर हमारे यहां कैसे ग्रन्थ लिखे हैं और उनमें क्या लिखा गया है, यह जानने-समझने की उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की। उन्हें इसका ज्ञान कभी न हुआ कि हमारी वर्तमान दिनचर्या का भारतीय विचारधारा से क्या सम्बन्ध है।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट